समाज तब तक सुरक्षित नहीं हो सकता, जब तक उसके सबसे मासूम और कमजोर सदस्य — यानी बच्चे — खुद को सुरक्षित महसूस न करें।
कहते हैं कि बच्चों को अच्छे संस्कार देना बहुत जरूरी है, लेकिन उससे पहले ज़रूरी है उन्हें सही और गलत का फर्क सिखाना। और यह फर्क सिर्फ पढ़ाई से नहीं आता — यह आता है अनुभव, जागरूकता और बातचीत से।
रिया और विवेक की घटना के बाद स्कूल, मोहल्ला और शहर में चर्चा शुरू हो गई थी। अब सिर्फ बच्चे नहीं, बड़े भी सीखने लगे थे कि बच्चों की सुरक्षा में चूक नहीं होनी चाहिए।
🧠 क्या सिखाना ज़रूरी है?
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गुड टच और बैड टच क्या है?
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गुड टच वो होता है जो हमें सुरक्षित और प्यार भरा लगे — जैसे मम्मी का गले लगाना, पापा का सिर सहलाना, टीचर की तारीफ।
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बैड टच वो होता है जो हमें डराए, शर्मिंदा करे या जबरदस्ती लगे — कोई बिना इजाज़त छुए, अजीब जगह हाथ लगाए, या छूने के बहाने बनाए।
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ना कहना सिखाना
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बच्चों को यह सिखाना चाहिए कि अगर उन्हें कुछ अच्छा न लगे तो वे साफ़ शब्दों में “ना” कह सकें।
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“ना” कहना बदतमीज़ी नहीं होती — यह आत्म-सुरक्षा होती है।
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विश्वासपात्र कौन है?
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बच्चे समझें कि किन लोगों से बात करनी चाहिए — मम्मी-पापा, भरोसेमंद टीचर, या कोई बड़ा जो उनका ख्याल रखता है।
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अगर कोई अजनबी या परिचित भी डराए, तो बच्चों को सिखाना चाहिए कि वो तुरंत किसी भरोसेमंद व्यक्ति से मदद माँगें।
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राज़ मत रखो जब मन दुखे
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बच्चे सोचते हैं कि बड़ों को बताना गलत होगा, या डांट पड़ सकती है। लेकिन उन्हें ये विश्वास दिलाना ज़रूरी है कि अगर उनका मन परेशान है, तो वो बात जरूर बताएँ।
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📖 रिया की डायरी से एक पंक्ति:
"गलत चीज़ को सही समझना सबसे बड़ी भूल है। और सबसे बड़ा समाधान — बोल देना है।"
रिया और विवेक अब स्कूल के दूसरे बच्चों को छोटी-छोटी कहानियों और एक्टिंग के ज़रिए ये बातें सिखाते थे।
वे गुड्डे-गुड़ियों के ज़रिए “गुड टच-बैड टच” का नाटक करते,
क्लास में ‘ना’ कहने की एक्टिंग करवाते,
और बच्चों को सिखाते —
"अगर कोई जबरदस्ती करे, तो ज़ोर से चिल्लाओ – 'NO!' और भागो किसी बड़े के पास।"
इन छोटे-छोटे कदमों ने बड़े बदलाव लाए।
अब हर बच्चा ज्यादा सतर्क, आत्मनिर्भर और जागरूक था।
उनके माता-पिता भी अब हर रात बच्चों से एक सवाल जरूर पूछते —
"आज कुछ ऐसा तो नहीं हुआ जो तुम्हें अजीब या बुरा लगा?"
और बच्चा बेझिझक अपनी बात कहता।
बच्चों को सुरक्षा देना सिर्फ दरवाज़े बंद करने से नहीं होता,
बल्कि उनके मन के डर के दरवाज़े खोलने से होता है।
हम जब बच्चों को समझते हैं, सुनते हैं और सिखाते हैं —
तभी वो अपने जीवन की मुश्किलों से लड़ना सीखते हैं।