वह जो लड़की थी, और फिर औरत बन गई
संध्या की उम्र जब सोलह की हुई, तो गांव की औरतों की नजरों में वह लड़की नहीं रही।
“अब इसकी चाल देखकर शर्म आती है,” बूढ़ी काकी ने कहा था एक दिन, जब संध्या स्कूल से लौट रही थी।
वह नजरे झुकाकर चुपचाप निकल गई थी।
लेकिन उस दिन उसके भीतर कुछ टूट गया था।
पहली बार उसने खुद को आइने में देखा, ऐसे जैसे वो कोई और हो। बदन का आकार बदला था, चेहरे पर मासूमियत की जगह अब कुछ और था – एक अनकहा आकर्षण, जो दुनिया को दिखता था, पर वह खुद नहीं समझती थी।
संध्या ने पढ़ाई में खुद को झोंक दिया। शहर के कॉलेज में दाख़िला मिला तो एक नई दुनिया सामने थी।
वहाँ लड़के उससे बात करते तो लड़कियाँ कानाफूसी करतीं।
“ये गांव से आई है, लेकिन इसे पता है अपनी बॉडी को कैसे कैरी करना है।”
कभी किसी ने उसके जीन्स पहनने पर सवाल उठाया, कभी किसी ने उसकी आँखों के काजल को “छल” कहा।
मगर वह अब कमजोर नहीं थी।
वह जान चुकी थी कि ये दुनिया उसके बदलते शरीर को देखकर उसे परखती है, लेकिन उसका मन, उसका आत्मबल, कोई नहीं देखता।
प्रेम
फिर उसकी ज़िंदगी में आरव आया – अंग्रेज़ी में बात करने वाला, आत्मविश्वासी, और खुला हुआ लड़का।
वह उसके साथ खुद को सहज महसूस करने लगी।
एक दिन आरव ने उसका हाथ पकड़ लिया — बिना पूछे।
वह चौंकी, मगर कुछ नहीं बोली।
रातभर सोचती रही —
“क्या मैं प्यार में हूं, या सिर्फ अकेली हूं?”
संध्या ने अगली सुबह आरव से कहा –
“जब कोई लड़की चुप हो, तो इसका मतलब सहमति नहीं होता।”
आरव चला गया। लेकिन संध्या के भीतर कुछ और मजबूत हो गया।
समाज और करियर
कॉलेज के आख़िरी साल में संध्या ने जॉब पाने के लिए इंटरव्यू दिए।
एक इंटरव्यू में अधिकारी ने कहा,
“आप बहुत सुंदर हैं, मैडम। कंपनी की फ्रंट डेस्क पर आपकी जरूरत है।”
संध्या मुस्कराई, और कहा,
“मेरी सुंदरता मेरी पहचान नहीं, मेरी योग्यता है।”
वह इंटरव्यू छोड़कर निकल गई।
उसने खुद को साबित किया – एक NGO की कम्युनिकेशन हेड बनी। गांव की लड़कियों को पढ़ाने लगी।
उसे अब लड़कियों की आंखों में वही सवाल दिखता था जो उसने खुद कभी पूछे थे –
“क्या हमारी सुंदरता हमारा अपराध है?”
अकेलापन
ज़िंदगी के तीस में कदम रखते हुए वह अब भी अकेली थी।
लोग पूछते – “शादी कब करोगी?”
वह कहती – “जब लगे कि कोई है, जो मेरी आत्मा को पढ़ सकता है, शरीर को नहीं।”
कई रिश्ते आए, कई चले गए।
उसके दोस्त शादी कर चुके थे, बच्चों की तस्वीरें शेयर करते थे।
लेकिन वह खुश थी — किताबों के बीच, अपने काम के बीच, और उन लड़कियों के बीच जिनकी आवाज वह बन चुकी थी।
एक दिन गांव की वही बूढ़ी काकी, जो कभी उसे ताने देती थी, अस्पताल में भर्ती थी।
संध्या मिलने गई।
काकी ने उसका हाथ पकड़ा और कहा,
“बेटी, तू अब लड़की नहीं रही, तू औरत बन गई है। तूने वो किया जो मर्द नहीं कर सके।”
संध्या की आंखों में पानी आ गया।
उसे पहली बार लगा — वह सच में परिपक्व हो गई है।
मच्योरिटी किसी उम्र की मोहताज नहीं होती।
"मैं लड़की थी... अब मैं खुद हूं।"
अब जब वह आईने में देखती है,
तो सिर्फ शरीर नहीं देखती,
बल्कि वह आत्मा देखती है जिसने समाज के हर सवाल का जवाब अपने कर्म से दिया।
उस मोड़ पर, जब लड़की औरत बनी,
तो वह समझ गई –
मच्योरिटी उम्र से नहीं आती, समझ और संघर्ष से आती है।
और जवानी कोई पाप नहीं, बल्कि जीवन का सबसे साहसी पड़ाव है।
BY- ADITYA KUMAR