(एक लड़की की जल्दी आई जवानी की कहानी)
छोटा सा गाँव, हरियाली से भरपूर, लेकिन सोच में अब भी कई साल पीछे। यहीं रहती थी चंपा, महज़ 13 साल की उम्र, मासूम चेहरा, आँखों में अनगिनत सवाल, पर लब खामोश। गाँव के बाकी बच्चों की तरह वो भी खेतों में दौड़ती, गुड्डे-गुड़ियों की शादी रचाती, पेड़ों पर झूलती। लेकिन उसकी दुनिया अचानक बदलने लगी थी।
एक दिन, जब वो अपने घर के पिछवाड़े तुलसी को पानी दे रही थी, उसकी माँ की निगाह पड़ी — चंपा अब पहले जैसी नहीं रही थी। उसके सीने का आकार बदलने लगा था, कद अचानक बढ़ने लगा था, और चेहरे पर भी अजीब सी गंभीरता छाने लगी थी।
माँ ने समझा, “शायद अब वक़्त आ गया है, इसे समझाने का।”
रात को, जब सब सो गए, माँ ने चंपा को पास बिठाया और कहा, “बिटिया, अब तू बड़ी हो रही है, तुझे कुछ बातों का ध्यान रखना होगा। किसी भी लड़के से हँसकर बात मत करना, अकेली बाहर मत जाना, और जो शरीर में बदलाव हो रहे हैं, वो भगवान की देन हैं, मगर किसी को बताना मत।”
चंपा डर गई।
"माँ, क्या मैं कुछ गलत कर रही हूँ?"
माँ बोली, "नहीं बिटिया, मगर अब तुझे संभलकर रहना होगा।"
समझ और समाज की दीवार
गाँव में बातें फैलती देर नहीं लगती। जब एक औरत ने चंपा को कुंए से पानी भरते देखा, तो वापस आकर औरतों की मंडली में बोली, “वो चंपा ना, अब जवान हो गई है। अब तो उसकी शादी के बारे में सोचना चाहिए।”
13 साल की लड़की और शादी? लेकिन वहाँ ये अजीब नहीं था, ये “समय पर निर्णय” कहा जाता था।
चंपा को अब खेलने की इजाज़त नहीं थी। ना स्कूल, ना सहेलियाँ, सिर्फ घर, रसोई और चौका-बर्तन।
लेकिन उसके अंदर सवाल कुलबुलाने लगे थे –
“मेरे शरीर में ऐसा क्या बदल गया है कि लोग अब मुझे अलग नज़र से देखने लगे हैं?”
“मैं तो अभी भी वही हूँ, चंपा… जो कल थी।”
डॉक्टर की बात
गाँव में एक बार स्वास्थ्य शिविर लगा। चंपा की माँ उसे लेकर गई। वहाँ बैठी थी डॉक्टर समीरा, जो शहर से आई थीं। उन्होंने चंपा की उम्र और उसके शारीरिक बदलावों को देखकर कहा,
“ये एक मेडिकल स्थिति हो सकती है, जिसे प्रीकॉशियस प्यूबर्टी कहते हैं। इसमें शरीर समय से पहले हार्मोन बनाता है और बदलाव शुरू हो जाते हैं। इसका इलाज संभव है, लेकिन सबसे ज़रूरी है समझ और संवेदनशीलता।”
माँ चौंक गई — “तो ये कोई पाप या शर्म की बात नहीं?”
डॉक्टर मुस्कराईं — “बिलकुल नहीं, ये शरीर की जैविक प्रक्रिया है, इसमें लड़की की कोई गलती नहीं। लेकिन समाज को इसे समझना होगा।”
अधूरी उम्र का बोझ
गाँव लौटी तो माँ बदल चुकी थी। अब वो चंपा को समझाने लगी, डराने नहीं। लेकिन गाँव नहीं बदला था।
एक दिन, गाँव के एक 25 साल के लड़के ने चंपा को घूरा। फिर घर आकर उसके पिता से बात की —
“आपकी बिटिया अब सयानी हो गई है। अगर इजाज़त हो तो रिश्ता भेजें…”
पिता ने बात टाल दी, लेकिन घर का माहौल बदल गया। चंपा की हर हरकत पर नज़र रखी जाने लगी। जैसे वो कोई दोषी हो।
विद्रोह
अब चंपा खुद में लड़ाई लड़ रही थी। वो समझ चुकी थी कि उसका शरीर जल्दी बड़ा हो गया, लेकिन उसका मन अभी बच्चा है। वो स्कूल वापस जाना चाहती थी, किताबों में खो जाना चाहती थी।
एक दिन उसने माँ से कहा —
“माँ, क्या मैं कभी वापस स्कूल जा सकती हूँ?”
माँ की आँखें भर आईं, “हां बिटिया, अब समझ आ गया है मुझे… दुनिया नहीं बदली, लेकिन तू बदल सकती है।”
माँ ने स्कूल में बात की। गाँव की औरतों ने विरोध किया, “जवान लड़की को स्कूल भेजोगी? लोग क्या कहेंगे?”
लेकिन इस बार माँ डरी नहीं। उसने कहा,
“जो लोग मेरी बेटी को सिर्फ उसके शरीर से पहचानें, वो इंसान नहीं। मेरी बेटी पढ़ेगी, बढ़ेगी और समाज को बताएगी कि समय से पहले जवान होना कोई अपराध नहीं।”
चंपा अब 18 साल की हो चुकी है। स्कूल टॉप किया है। अब वो एक स्वास्थ्य सलाहकार बनने की तैयारी कर रही है, ताकि वो गाँव की और लड़कियों को समय से पहले आई जवानी के बोझ से आज़ाद कर सके।
वो अब भी कभी-कभी आईने में खुद को देखती है और कहती है,
“तू गलत नहीं थी… बस दुनिया को समझने में वक़्त लग गया।”
समय से पहले लड़कियों में हार्मोनल बदलाव आना एक जैविक प्रक्रिया है, ना कि कोई शर्म की बात। लेकिन समाज की संकीर्ण सोच उन्हें समय से पहले बड़ा बना देती है। सवाल सिर्फ शरीर का नहीं, मानसिक समझ का भी है। ज़रूरत है तो संवेदनशीलता की, शिक्षा की और सबसे ज़्यादा — समर्थन की।